रविवार, 1 फ़रवरी 2009

बहादुर पटेल की कविता

नदी
मेरे भीतर एक नदी बहती हुई
उसके शीतल जल से
हहराता हुआ एक पेड़ घना
हवा के झोको से हिलता

वही किनारा पर
मिटटी गाँव की
बस चुकी है फेफडो में मेरे

एक कुम्हार बनाता है घडा
नदी से भरता घडा
बिल्कुल ठंडा और सुगंध से भरा पानी
जिसे पीते ही गलने लगती है प्यास
उदास चेहरे
पपडाते होठो पर
सुकून की छाया तैरने लगती है

नदी मेरे भीतर पैदा करती है एक संसार।

5 टिप्‍पणियां:

saloni ने कहा…

bahut badhiya.
isi tarah shreshth rachanaye hum tak pahuchate rahe.

saraswatlok ने कहा…

बिल्कुल ठंडा और सुगंध से भरा पानी
जिसे पीते ही गलने लगती है प्यास
उदास चेहरे
पपडाते होठो पर
सुकून की छाया तैरने लगती है

wah! wah!
bahut hi sunder chitran kiya hai aapne..........

Bahadur Patel ने कहा…

aapane meri kavitayen lagai achchha kiya. lekin kuchh aur achchhi kavitayen aur bhi rachanakar likh rahe hain.

Shamikh Faraz ने कहा…

kafi achhi hai


www.salaamzindadili.blogspot.com

प्रदीप कांत ने कहा…

नदी मेरे भीतर पैदा करती है एक संसार।


Behatareen panktiyan